"इन्सान वक्त से डरता है, और वक्त पिरामिड से डरता है"
मिस्र देश में नील नदी के पश्चिमी किनारे ग़िज़ा शहर के एक तरफ पत्थरों के पिरामिडों के बीच फराहो किंग 'खुफु' का पिरामिड सदियों से वक्त से लड़ाई लड़ रहा है। आज से लगभग 5000 साल पहले जब इंसानों ने इसे बनाया तब चाँद तारों ने इस इंसानी जज्बे को देख कर दांतों तले अंगुली दबाई होगी।
मानव सभ्यता के इतिहास में 3800 वर्ष तक यह इमारत डींगें हांकती रही कि मैं दुनियां में इंसान द्वारा बनी सबसे ऊँची चीज़ हूँ जब तक कि 1311 AD में इंग्लैंड में लिंकन गिरजाघर नहीं बन गया।
उस जमाने में लाखों टन पत्थरों को कैसे लाया, ले जाया गया, इमारत को बनाया गया, यह सब आज भी रहस्य है। बाहर तपते रेगिस्तान की गर्मी लेकिन पिरामिड्स के भीतर AC वाली ठंडक और भूलभुलैया वाली अनगिनत सुरंगें। क्या शहंशाहों ने अपनी मौत के बाद आराम फरमाने के लिए इन जगहों को बनाया? मौत के बाद आराम के लिए जिन्दगी में इतना परिश्रम?
शायद सदियों पुरानी इमारत यही सिखाती है कि दुनियां में कुछ ऐसा करो कि आपके कामों का अस्तित्व न वक्त मिटा सके न कोई माटी के बने पुतले। पास बहती नील नदी के पानी का लक्ष्य है निरन्तर बहना और अन्त में सागर में जाकर मिल जाना; सदियों से पानी ऐसा कर रहा है और सागर में उसका भी अस्तित्व अमर है।
अंगद के पैर की तरह खड़ा गिजे का पिरामिड अपनी स्थिरता की पहचान से अमर है। पिरामिड के पास शेर के शरीर का धड़ एवं इंसानी मुँह के आकार का बना 'स्फिंक्स' यह समझाता है कि परिश्रम और ताकत पशुओं से सीखो लेकिन मस्तिष्क में विवेक मनुष्य का रखो।
आसमान की तरफ आगे बढ़ता हुआ तिकोने मुँह वाला वो सबसे बड़ा पिरामिड सिखाता है जितना ऊँचा होते जाओ अपने अहम् का वजन नीचे छोड़ते जाओ। आपकी जिन्दगी में नींव कितनी मजबूत है इसी से आपके अस्तित्व तय होगा। पिरामिड के भीतर की सुरंगें आपकी जिंदगी द्वारा जिन्दगी की न खत्म होने वाली तलाश है।
बहती नदी और पत्थर को वो इंसानी पहाड़ सदियों से यह सीख दे रहा है कि परिश्रम वाली जिन्दगी वालों को ही आराम और निर्वाण वाली मौत नसीब होती है।
लेखक:
अर्जुन सिंह साँखला
प्राचार्य,
लक्की इंस्टिट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज, जोधपुर।
मिस्र देश में नील नदी के पश्चिमी किनारे ग़िज़ा शहर के एक तरफ पत्थरों के पिरामिडों के बीच फराहो किंग 'खुफु' का पिरामिड सदियों से वक्त से लड़ाई लड़ रहा है। आज से लगभग 5000 साल पहले जब इंसानों ने इसे बनाया तब चाँद तारों ने इस इंसानी जज्बे को देख कर दांतों तले अंगुली दबाई होगी।
मानव सभ्यता के इतिहास में 3800 वर्ष तक यह इमारत डींगें हांकती रही कि मैं दुनियां में इंसान द्वारा बनी सबसे ऊँची चीज़ हूँ जब तक कि 1311 AD में इंग्लैंड में लिंकन गिरजाघर नहीं बन गया।
उस जमाने में लाखों टन पत्थरों को कैसे लाया, ले जाया गया, इमारत को बनाया गया, यह सब आज भी रहस्य है। बाहर तपते रेगिस्तान की गर्मी लेकिन पिरामिड्स के भीतर AC वाली ठंडक और भूलभुलैया वाली अनगिनत सुरंगें। क्या शहंशाहों ने अपनी मौत के बाद आराम फरमाने के लिए इन जगहों को बनाया? मौत के बाद आराम के लिए जिन्दगी में इतना परिश्रम?
शायद सदियों पुरानी इमारत यही सिखाती है कि दुनियां में कुछ ऐसा करो कि आपके कामों का अस्तित्व न वक्त मिटा सके न कोई माटी के बने पुतले। पास बहती नील नदी के पानी का लक्ष्य है निरन्तर बहना और अन्त में सागर में जाकर मिल जाना; सदियों से पानी ऐसा कर रहा है और सागर में उसका भी अस्तित्व अमर है।
अंगद के पैर की तरह खड़ा गिजे का पिरामिड अपनी स्थिरता की पहचान से अमर है। पिरामिड के पास शेर के शरीर का धड़ एवं इंसानी मुँह के आकार का बना 'स्फिंक्स' यह समझाता है कि परिश्रम और ताकत पशुओं से सीखो लेकिन मस्तिष्क में विवेक मनुष्य का रखो।
आसमान की तरफ आगे बढ़ता हुआ तिकोने मुँह वाला वो सबसे बड़ा पिरामिड सिखाता है जितना ऊँचा होते जाओ अपने अहम् का वजन नीचे छोड़ते जाओ। आपकी जिन्दगी में नींव कितनी मजबूत है इसी से आपके अस्तित्व तय होगा। पिरामिड के भीतर की सुरंगें आपकी जिंदगी द्वारा जिन्दगी की न खत्म होने वाली तलाश है।
बहती नदी और पत्थर को वो इंसानी पहाड़ सदियों से यह सीख दे रहा है कि परिश्रम वाली जिन्दगी वालों को ही आराम और निर्वाण वाली मौत नसीब होती है।
लेखक:
अर्जुन सिंह साँखला
प्राचार्य,
लक्की इंस्टिट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज, जोधपुर।
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